अंदोह के मारे इंसाँ को हर लम्हा गिराँ हो जाता है
अंदोह के मारे इंसाँ को हर लम्हा गिराँ हो जाता है
जब टीस जिगर में उठती है तारीक जहाँ हो जाता है
ग़मनाक फ़ज़ा में रक्खी थी बुनियाद-ए-नशेमन जब हम ने
अब बाद-ए-सहर के चलने पर तूफ़ाँ का गुमाँ हो जाता है
ये राह-ए-अमल है ऐ हम-दम दुश्वारी-ए-मंज़िल क्या मा'नी
ख़ामोश जो हो कर बैठ गया ग़म उस का निशाँ हो जाता है
ये बात भी अब तक अहल-ए-चमन महसूस नहीं कर पाए हैं
जब कोई नशेमन जलता है गुलशन में धुआँ हो जाता है
ये ज़ब्त-ए-अलम मेराज सही पस्ती से गुज़रने वालों की
महकूमी की हद्द-ए-फ़ासिल पर हर ज़ख़्म ज़बाँ हो जाता है
सय्याद क़फ़स के रोज़-ओ-शब पुर-कैफ़ सही लेकिन अक्सर
परवाज़ के क़िस्से छिड़ते ही दिल महव-ए-फ़ुग़ाँ हो जाता है
हँसने में अश्क रवाँ होना ये लुत्फ़-ओ-करम उन का है 'हिलाल'
एहसास के आईने में मगर हर ज़ख़्म ज़बाँ हो जाता है
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