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अपना ईमान-ओ-दीं समझते हैं

अमर अबदाबादी

अपना ईमान-ओ-दीं समझते हैं

अमर अबदाबादी

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    अपना ईमान-ओ-दीं समझते हैं

    हम तुझे बिल-यक़ीं समझते हैं

    दिल की हर अहल-ए-दिल समझता है

    आप ही इक नहीं समझते हैं

    अपने दिल की जो बात सुनते हों

    'अक़्ल की वो कहीं समझते हैं

    तुम को दुनिया ख़ुदा समझती है

    एक हम ही नहीं समझते हैं

    तेरे कूचे की सरज़मीं की क़सम

    हम उसे कब ज़मीं समझते हैं

    तर्क-ए-उल्फ़त ब'ईद-ए-फ़ितरत हो

    मस्लहत के क़रीं समझते हैं

    काम अपना नियाज़-मंदी है

    हम भी नाज़नीं समझते हैं

    हम से उलझे मोहतसिब हरगिज़

    हम कि सब आँ-ओ-ईं समझते हैं

    ग़ैर समझा है ला-मकाँ जिस को

    हम उसे दिल-नशीं समझते हैं

    हम तिरे प्यार के हैं दा'वेदार

    ख़ुद को शायद हसीं समझते हैं

    'अमर' ये तो जेब-ओ-दामाँ है

    जिस को हम आस्तीं समझते हैं

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