अपना नफ़स नफ़स है कि शो'ला कहें जिसे
अपना नफ़स नफ़स है कि शो'ला कहें जिसे
वो ज़िंदगी है आग का दरिया कहें जिसे
हर-चंद शहर शहर है जश्न-ए-सहर मगर
वो रौशनी कहाँ है सवेरा कहें जिसे
वो रंग-ए-फ़स्ल-ए-गुल है कि पतझड़ भी मात खाए
वो सूरत-ए-चमन है कि सहरा कहीं जिसे
जो चारागर थे वो भी हुए क़ातिल-ए-हयात
अब कौन है कि अपना मसीहा कहें जिसे
दीवार-ओ-दर पे सब्त हैं नक़्श-ओ-निगार-ए-यार
अपना मकान है कि अजंता कहें जिसे
इस तरह ताबनाक है वो सज्दा-गाह-ए-शौक़
जान-ए-हरम कि जान-ए-कलीसा कहें जिसे
'वाहिद' तुम्हें जो ख़्वाहिश-ए-नाम-ओ-नुमूद हो
वो शाइ'री करो कि मुअ'म्मा कहें जिसे
- पुस्तक : Fikr-e-nau and Gul-e-nau
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