असीरान-ए-चमन की चाक-दामानी नहीं जाती
असीरान-ए-चमन की चाक-दामानी नहीं जाती
कली जब फूल बन जाती है पहचानी नहीं जाती
तिरी महफ़िल से पहले भी परेशानी मुक़द्दर थी
तिरी महफ़िल में आ कर भी परेशानी नहीं जाती
उठा लो जाम बढ़ कर जुरअत-ए-रिंदाना कहती है
यहाँ रिंदान-ए-कम-आमेज़ की मानी नहीं जाती
जलाया इस तरह बर्क़-ए-हवादिस ने गुलिस्ताँ को
कि शाख़-ए-आशियाँ भी हम से पहचानी नहीं जाती
निगाह-ए-शौक़ थी जो आइना असरार-ए-'आलम का
मिसाल-ए-चश्म-ए-नर्गिस उस की हैरानी नहीं जाती
न जाने ज़िंदगी ने कितने मयख़ाने लुंढा डाले
मगर अहल-ए-तलब की तिश्ना-सामानी नहीं जाती
वो बर्बाद-ए-तमन्ना हूँ वो बरगश्ता मुक़द्दर हूँ
बहारों में भी जिस की ख़ाना-वीरानी नहीं जाती
गरेबाँ चाक है दामन दरीदा है जिगर ख़ूँ है
‘उरूस-ए-गुल की लेकिन ख़ंदा-सामानी नहीं जाती
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