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बर्क़ के साए में कैफ़-ए-आशियाँ समझा था मैं

ज़ेब बरैलवी

बर्क़ के साए में कैफ़-ए-आशियाँ समझा था मैं

ज़ेब बरैलवी

MORE BYज़ेब बरैलवी

    बर्क़ के साए में कैफ़-ए-आशियाँ समझा था मैं

    हर मआल-ए-रंग-ओ-बू को गुलसिताँ समझा था मैं

    हर नुमूद-ए-इश्क़ में सोज़-ए-निहाँ समझा था में

    शाहकार-ए-हुस्न को आतश-बजाँ समझा था मैं

    रंज-ओ-ग़म से इर्तिबात-ए-जिस्म-ओ-जाँ समझा था मैं

    हस्ती-ए-नाकाम को ख़्वाब-ए-गिराँ समझता था मैं

    इश्क़-ए-फ़ानी को निशात-ए-जावेदाँ समझा था मैं

    ज़िंदगी के राज़ को अब तक कहाँ समझा था मैं

    दिल के हर पर्दे से आती थीं सदाएँ दर्द की

    बरबत-ए-हस्ती पे तुम को नग़्मा-ख़्वाँ समझा था मैं

    क्या ख़बर थी दिल ही मेरा आस्तान-ए-नाज़ है

    दिल को अब तक बे-नियाज़-ए-आस्ताँ समझा था मैं

    इस लिए मैं इल्तिफ़ात-ए-ख़ास से महरूम हूँ

    जोशश-ए-सई-ए-तलब को राएगाँ समझा था मैं

    जुनून-ए-जुस्तुजू राह-ए-तलब में बार बार

    हर ग़ुबार-ए-कारवाँ को कारवाँ समझा था मैं

    सुन रहा था कैफ़ियात-ए-ज़िंदगी के वाक़ि'आत

    उन के अफ़्साने को अपनी दास्ताँ समझा था मैं

    बे-नियाज़-ए-बंदगी-ए-शौक़ थी मेरी ख़ुदी

    बे-ख़ुदी में एहतिराम-ए-आस्ताँ समझा था मैं

    इस क़दर डूबा हुआ था ए'तिबार-ए-शौक़ में

    हर फ़रेब-ए-आशियाँ को आशियाँ समझा था मैं

    ग़ुंचा-ओ-गुल ही पे क्या मौक़ूफ़ था राज़-ए-जमाल

    ज़र्रे ज़र्रे को चमन के राज़-दाँ समझा था मैं

    दिल की हर तफ़्सीर पर ख़ामोशियाँ देती थीं दाद

    अंजुमन वालों को महव-ए-दास्ताँ समझा था मैं

    आप की ज़ात-ए-गिरामी का 'इरफ़ाँ कर सका

    आप को लेकिन शरीक-ए-कारवाँ समझा था मैं

    जब शिकस्त-ए-साज़-ए-दिल की 'ज़ेब' झंकारें सुनीं

    दिल की हर धड़कन पे तुम को नग़्मा-ख़्वाँ समझा था मैं

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