बुझे दिए को भी झुक कर सलाम करता हूँ
बुझे दिए को भी झुक कर सलाम करता हूँ
मैं रौशनी का बड़ा एहतिराम करता हूँ
कभी कभी तो मिरी ख़ामुशी सुलगती है
कभी कभी तो मैं ख़ुद से कलाम करता हूँ
दरूद पढ़ता हूँ दिन भर किसी की फ़ुर्क़त में
किसी की आँख में शब भर क़ियाम करता हूँ
शब-ए-फ़िराक़ तू इतनी भी मुज़्महिल क्यों है
तुझे क़ुबूल ब-सद-एहतिराम करता हूँ
ज़रूरी बात तो ये है कि तू ज़रूरी है
इसी पे गुफ़्तुगू सारी तमाम करता हूँ
किसी चराग़ को करता हूँ आँख में रौशन
किसी ख़याल की लौ से कलाम करता हूँ
उसे तो फ़िक्र ज़रा भी नहीं रही मेरी
मैं जिस के ज़ो'म में नींदें हराम करता हूँ
यही ख़राबी है 'इरफ़ान' मेरी फ़ितरत में
वफ़ा के सारे हवालों को आम करता हो
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