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बुलंदी पस्ती फ़क़त अपनी 'उम्र ढलने तक

महमूद अशरफ़ मालेग

बुलंदी पस्ती फ़क़त अपनी 'उम्र ढलने तक

महमूद अशरफ़ मालेग

MORE BYमहमूद अशरफ़ मालेग

    बुलंदी पस्ती फ़क़त अपनी 'उम्र ढलने तक

    है कार-ए-जेहद-ए-मुसलसल तो साँस चलने तक

    जला के दिल जिसे पहुँचाई रौशनी शब-भर

    वो जा चुका था बहुत दूर दिन निकलने तक

    जनाज़ा उठ गया 'इज़्ज़त का जब मिरे घर से

    है इतना बाक़ी फ़क़त मुँह पे ख़ाक मलने तक

    जो आस्तीन में पलते रहे पनपते रहे

    चलेंगे चाल वो हर बार सर कुचलने तक

    भले ही आज की मेहनत का हो सुनहरा कल

    किसे है सब्र मगर वक़्त के बदलने तक

    अभी से राह पकड़ ख़ौफ़ कर कि वक़्त-ए-क़ज़ा

    मिल सकेगा बहाना कोई सँभलने तक

    सुराग़-ए-ज़ात से इदराक-ए-ज़ात तक 'अशरफ़'

    सफ़र कठिन ही रहा मुश्किलों के टलने तक

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