बुनियाद हुस्न-ओ-इश्क़ की पहले रखी गई
बुनियाद हुस्न-ओ-इश्क़ की पहले रखी गई
फिर बज़्म-ए-काएनात की ता'मीर की गई
नाकामियों के बाद भी है हौसला बुलंद
पस्त-हिम्मती की बात न हम से सुनी गई
कहने को सोज़-ए-इश्क़ की तक़्सीम थी मगर
अपने फ़रोग़-ए-हुस्न की तश्हीर की गई
ले दे के एक शम्अ' है वो भी बुझी बुझी
मरने के बाद भी न मिरी बेकसी गई
लब्बैक कह के सू-ए-हरम हो गया रवाँ
नुत्क़-ए-ख़लील से जिसे आवाज़ दी गई
अंदाज़ दिलरुबाई के जितने दिए गए
उतनी ही दिल-दही की अदा छीन ली गई
दुनिया है इस फ़रेब-ए-समाअ'त में मुब्तला
हर इक को है गुमाँ मुझे आवाज़ दी गई
इस तरह ज़िंदगी के हुए मरहले तमाम
हर संग-ए-ग़म की चोट बराबर सही गई
हमदर्द-ओ-ग़म-गुसार 'रियाज़ी' थे क़ब्र तक
हम-राह मेरे सिर्फ़ मिरी बेकसी गई
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