बुराई को बुराई फ़न को फ़न कहना ही पड़ता है
बुराई को बुराई फ़न को फ़न कहना ही पड़ता है
जो हक़ है वो सर-ए-दार-ओ-रसन कहना ही पड़ता है
कभी पूछी न अहल-ए-अंजुमन की बात भी तुम ने
तुम्हें इस पर भी रूह-ए-अंजुमन कहना ही पड़ता है
नज़र आती है अपनी पारसाई शैख़ को इस्याँ
तिरी अंगड़ाई को तौबा-शिकन कहना ही पड़ता है
शिकार-ए-सर्द-मेहरी-ए-वतन हूँ ये तो बर-हक़ है
मगर अपने वतन को तो वतन कहना ही पड़ता है
जिन्हें अपना कभी कहते थे हम उन को ही बेगाना
ब-फ़ैज़-ए-गर्दिश-ए-चर्ख़-ए-कुहन कहना ही पड़ता है
सुरूर-ए-बादा-ए-हस्ती को इस दौर-ए-तबाही में
शहीद-ए-तल्ख़ी-ए-काम-ओ-दहन कहना ही पड़ता है
बला से रहबरान-ए-अस्र मुझ को बे-अदब समझें
मुझे हर राहज़न को राहज़न कहना ही पड़ता है
कहीं सोज़-ए-ग़म-ए-पिन्हाँ से ज़ंजीरें पिघलती हैं
उसे दीवानों का दीवाना-पन कहना ही पड़ता है
ख़िज़ाँ का लाल हो या फ़स्ल-ए-गुल की गोद का पाला
चमन को तो बहर-सूरत चमन कहना ही पड़ता है
उजाले ज़ुल्मतों की लाश पर तख़्लीक़ होते हैं
सहर को शब की मय्यत का कफ़न कहना ही पड़ता है
जहाँ तख़्लीक़ पर पाबंदियाँ हों फ़िक्र पर पहरे
उसे दार-ओ-रसन की अंजुमन कहना ही पड़ता है
ख़फ़ा हैं होश-मंदान-ए-जहाँ पर जोश-ए-वहशत में
जो आ जाता है लब पर ऐ 'हसन' कहना ही पड़ता है
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