चाँद जिस वक़्त ढलने लगता है
घर में सूरज निकलने लगता है
पहले पड़ती है धूप जिस्मों पर
फिर तो साया भी जलने लगता है
वहशत-ए-ग़म उतरने लगती है
एक ख़तरा जो टलने लगता है
एक पत्थर में जान है सब की
फिर वो पत्थर पिघलने लगता है
सारा मंज़र बदल सा जाता है
जब वो पहलू बदलने लगता है
पावँ रखता है अपने झील में वो
और पानी उबलने लगता है
दो क़दम जिस के साथ चलता हूँ
वो ही रस्ता बदलने लगता है
लज़्ज़त-ए-दीद जब अधूरी हो
चाँद हमराह चलने लगता है
लफ़्ज़ जब बाज़याब होते हैं
लब पे मिस्रा मचलने लगता है
जब सितारा हो औज पर 'आसिम'
कम-नज़र भी उछलने लगता है
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