डसती शामों तपती सुब्हों जलती दोपहरों के सिवा
डसती शामों तपती सुब्हों जलती दोपहरों के सिवा
हम तीरा-बख़्तों को हाए कुछ न मिला रहरों के सिवा
आँखों के इन आईनों में हम को सारे 'अक्स मिले
वर्ना क्या शीशों ने दिखाया लोगों को चेहरों के सिवा
साहिल पर तो जो आता है प्यास बुझाने आता है
साहिल के होंटों को चूमे कौन भला लहरों के सिवा
महफ़िल-महफ़िल शे'र सुना कर मैं ने क्या पाया आख़िर
इस बस्ती में कोई नहीं जैसे गूँगों बहरों के सिवा
जिन के नाम सफ़र लिक्खा हो वहशत के बाज़ारों का
वो दीवाने सहरा-सहरा क्यों भटकें शहरों के सिवा
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