धुली हुई हैं फ़ज़ाएँ तिरे बदन की तरह
धुली हुई हैं फ़ज़ाएँ तिरे बदन की तरह
खुली हुई है धनक रंग-ए-पैरहन की तरह
ये क्या ग़ज़ब है कि इस शहर में तिरे होते
भटक रही है नज़र एक बे-वतन की तरह
हुई वो सुब्ह वो चमकी पहाड़ की चोटी
वो आफ़्ताब निकलता है कोहकन की तरह
चराग़-ए-दैर-ओ-हरम से तो रौशनी न हुई
हमारे दिल की तरह तेरी अंजुमन की तरह
ये कहकशाँ की फ़लक पे लकीर है 'रिफ़अत'
जबीन-ए-नाज़ पे ठहरी हुई शिकन की तरह
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