दिल के नगर में चार तरफ़ जब ग़म की दुहाई बैठ गई
दिल के नगर में चार तरफ़ जब ग़म की दुहाई बैठ गई
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
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दिल के नगर में चार तरफ़ जब ग़म की दुहाई बैठ गई
सर पे हमारे दस्त-ए-क़ज़ा से तेग़-ए-जुदाई बैठ गई
हम हैं फ़क़ीर अल्लाह के यारो फिर इस का है परेखा क्या
गर हम पास भी आ कर कोई बहनी माई बैठ गई
सुन के अदा-ए-ग़म की तेरे सब्र-ओ-शकेब हैं भागने पर
पाँव ठहरने मुश्किल हैं जब धाक पराई बैठ गई
ऐ दिल उस बाँकीत से हरगिज़ शुग़्ल न कर तू लकड़ी का
हाथ क़लम है फिर तेरा गर एक भी घाई बैठ गई
तेग़-ए-जफ़ा ली म्यान से अपने जब उस जान के दुश्मन ने
सर को झुका कर अपने अपने, सारी ख़ुदाई बैठ गई
'मुसहफ़ी' क्या पूछे है दिवाने हाल सफ़ा-ए-दिल का मिरे
था तो ये आईना रौशन पर अब काई बैठ गई
- पुस्तक : kulliyat-e-mas.hafii(divan-e-soom) (पृष्ठ 208)
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