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फ़क़त जस्त भरने तलक मसअला है

अली तासिफ़

फ़क़त जस्त भरने तलक मसअला है

अली तासिफ़

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    फ़क़त जस्त भरने तलक मसअला है

    कहाँ फिर ये नान-ओ-नमक मसअला है

    पड़ी होगी गुदड़ी के नीचे ही दुनिया

    उठा ले उठा के खिसक मसअला है

    ये शम्स-ओ-क़मर हैं फ़ुरू’ई मसाइल

    मियाँ आदमी गुंजलक मसअला है

    पस-ए-‘इश्क़-ए-लैला छुपा क्यों है मजनूँ

    ये अपने लिए आज तक मसअला है

    यूँही सुब्ह तक सब को जलना पड़ेगा

    चराग़ो हवा मुश्तरक मसअला है

    साबित हो जब तक अटल रह गुमाँ पर

    दिखाना ज़ियादा लचक मसअला है

    उठाने लगा था क़दम इंतिहाई

    खुला इस तरह यक-ब-यक मसअला है

    निकल तो पड़ा हूँ दुबारा मैं ख़ुद से

    मगर यार मेरी झिझक मसअला है

    यही ज़हर अमृत बनेगा किसी रोज़

    पियाला भरा है गटक मसअला है

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