फ़रेब-ए-दैर-ओ-हरम में आ कर तवाफ़-ए-जाम-ओ-सुबू न करना
फ़रेब-ए-दैर-ओ-हरम में आ कर तवाफ़-ए-जाम-ओ-सुबू न करना
गुनाह है रिंद-मशरबी में गुनाह की आरज़ू न करना
बयाँ से क्या ख़ाक शिद्दत-ए-सोज़-ए-ग़म का अंदाज़ा हो सकेगा
गुज़ारिश-ए-हाल-ए-वाक़ई है मरीज़ का गुफ़्तुगू न करना
अगर तुझे गुलसितान-ए-हस्ती में है पर-ओ-बाल की ज़रूरत
तो शाख़-ए-गुल पर कभी मुरत्तब नशेमन-ए-रंग-ओ-बू न करना
तुलूअ' होता है आफ़्ताब-ए-ख़ुदी गरेबान-ए-बे-ख़ुदी से
तजस्सुस-ए-अक़्ल गुमरही है तू भूल कर जुस्तुजू न करना
हो हुस्न की राय में शिकस्त-ए-ख़ुदी कि तौहीन-ए-बे-नियाज़ी
अक़ीदा-ए-इश्क़ में तो लेकिन हराम है आरज़ू न करना
यहीं से इक रोज़ आफ़्ताब-ए-हयात-ए-नौ फिर तुलूअ' होगा
अगर वो तार-ए-नज़र भी बख़्शें तो चाक-ए-दिल तू रफ़ू न करना
तिरी निगाह-ए-करम ने हर अंजुमन के आईं बदल दिए हैं
कभी ख़मोशी सवाब थी अब अज़ाब है गुफ़्तुगू न करना
नमाज़ क्या लग़्ज़िश-ए-क़दम भी है मुस्तजाब उस की बारगह में
अगर मयस्सर हुज़ूर-ए-दिल हो गुनाह भी बे-वुज़ू न करना
हवा-ए-सैर-ए-चमन मुबारक गुज़ारिश-ए-'फ़ैज़' इस क़दर है
असीर-ए-दाम-ए-निगाह हो कर तू दिल को बे-आबरू न करना
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