फ़िशार-ए-कर्ब-ए-हस्ती का तमाशा क्या नहीं देखा
फ़िशार-ए-कर्ब-ए-हस्ती का तमाशा क्या नहीं देखा
कहीं ख़ुद जिस्म अपना और कहीं साया नहीं देखा
सबब क्या है अचानक यूँ तुम्हारे चीख़ उठने का
मुझे लगता है तुम ने ख़्वाब कुछ अच्छा नहीं देखा
बदलते मौसमों की भागते लम्हों की आँखों ने
सलामत कोई इस तूफ़ान में बेड़ा नहीं देखा
बहुत देखे यहाँ इज़हार के बहते हुए दरिया
कुआँ लेकिन तख़य्युल का कोई गहरा नहीं देखा
कोई मौसम हो कोई रुत मगर इन सर-ज़मीनों में
किसी पौदे को मैं ने फूलता-फलता नहीं देखा
मिरे इक शे'र का उस को दिखा दो आँख-भर चेहरा
अगर आँखों ने उस की बूँद-भर दरिया नहीं देखा
फ़ज़ा-ए-ज़िंदगानी थी कुछ इतनी ख़्वाब-आलूदा
बचा साँसों का अपनी कितना सरमाया नहीं देखा
बिखरती टूटती इस काएनात-ए-ज़ीस्त में 'वसफ़ी'
शिकस्ता मैं ने तेरी सोच का बजरा नहीं देखा
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