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फ़ित्ना फिर आज उठाने को है सर लगता है

आनंद नारायण मुल्ला

फ़ित्ना फिर आज उठाने को है सर लगता है

आनंद नारायण मुल्ला

MORE BYआनंद नारायण मुल्ला

    फ़ित्ना फिर आज उठाने को है सर लगता है

    ख़ून ही ख़ून मुझे रंग-ए-सहर लगता है

    इल्म की देव-क़दी देख के डर लगता है

    आसमानों से अब इंसान का सर लगता है

    मुझ को लगता है नशेमन की मिरे ख़ैर नहीं

    जब किसी शाख़ पे गुलशन में तबर लगता है

    मान लो कैसे कि मैं ऐब सरापा हूँ फ़क़त

    मेरे अहबाब का ये हुस्न-ए-नज़र लगता है

    कल जिसे फूँका था या कह के कि दुश्मन का है घर

    सोचता हूँ तो वो आज अपना ही घर लगता है

    फ़न है वो रोग जो लगता नहीं सब को लेकिन

    जिस को लगता है उसे ज़िंदगी-भर लगता है

    एहतियातन कोई दर फोड़ लें दीवार में और

    शोर बढ़ता हुआ कुछ जानिब-ए-दर लगता है

    एक दरवाज़ा है हर-सम्त निकलने के लिए

    हो हो ये तो मुझे शैख़ का घर लगता है

    चमन-ए-शे'र में हूँ इक शजर-ए-ज़िंदा मगर

    अभी 'मुल्ला' मिरी डाली ये समर लगता है

    स्रोत :
    • पुस्तक : Kulliyat-e-Anand Narayan Mulla (पृष्ठ 645)
    • रचनाकार : Khaliq Anjum
    • प्रकाशन : National Council for Promotion of Urdu Language-NCPUL (2010)
    • संस्करण : 2010

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