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हाए कैसा ये ज़माने का असर लगता है

यास चाँदपुरी

हाए कैसा ये ज़माने का असर लगता है

यास चाँदपुरी

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    हाए कैसा ये ज़माने का असर लगता है

    जिस को देखो वही अफ़्सुर्दा बशर लगता है

    ख़ूँ के रिश्तों का भी अब कोई तक़द्दुस रहा

    अपना घर भी मुझे अब ग़ैर का घर लगता है

    दिए जाता है बहुत ज़ेहनी अज़िय्यत मुझ को

    दुश्मन-ए-जान मिरा लख़्त-ए-जिगर लगता है

    घर का शीराज़ा बिखर जाएगा मा'लूम था

    अब ये घर ही मुझे आसेब का घर लगता है

    बाप का बाप बना बैठा है बेटा घर में

    और अगर बाप को देखो तो पिसर लगता है

    अब बुराई पे भी ग़ैरत नहीं इंसानों को

    अब हर इक ऐब ब-अंदाज़-ए-हुनर लगता है

    हम किसी शख़्स को कुछ कहने के क़ाबिल रहे

    अपना ही हाल बस अब ज़ेर-ओ-ज़बर लगता है

    ये है अंदेशा ज़बाँ पर लगे क़ुफ़्ल कहीं

    यूँ कोई बात भी कहते हुए डर लगता है

    जान लेवा यही हालात रहे तो इक दिन

    अपना दुनिया से बहुत जल्द सफ़र लगता है

    पस-ए-मिज़्गाँ है तो इस में है समुंदर पिन्हाँ

    अश्क जब पलकों पे आता है गुहर लगता है

    ख़ून से सींच के पौदे को बड़ा करते हैं

    तब कहीं जा के वो 'यास' शजर लगता है

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