है अजब शग़्ल मिरा रात के ढल जाने तक
है अजब शग़्ल मिरा रात के ढल जाने तक
देखता रहता हूँ तारा कोई जल जाने तक
फिर सुला देगा उसे बहर का इक गहरा सुकूत
मस्ती है मौज में साहिल पे मचल जाने तक
क्या हुआ उस की गिरह में है अगर इक दूरी
मैं भी तो उस का हूँ बस उस के बदल जाने तक
फिर वही मैं मिरा फिर होगा वही कार-ए-जहाँ
बात सारी है किसी ग़म के बहल जाने तक
वो ज़रूरत से ज़ियादा ही फ़राग़त थी कि मैं
जिस में फिरता रहा हसरत के निकल जाने तक
मेरा इक उज़्र वो सुनता रहा ख़ामोशी से
और मैं बैठा रहा बर्फ़ पिघल जाने तक
रोक रखनी है कहीं एक जगह दर्द की रात
किसी बीमार की हालत के सँभल जाने तक
रिज़्क़ मिट्टी का मिरा ख़ूँ नहीं बनने वाला
सुब्ह के चेहरे पे ग़ाज़ा कोई मल जाने तक
ऐन मुमकिन है ठहर जाए कहीं आज का दिन
और ये ठहरा ही रहे यूँ तिरे कल जाने तक
एक आतिश है कि दहकाए हुए रखती है
किसी ज़ंजीर के हल्क़ों के पिघल जाने तक
मैं भी 'शाहीं' उसे मिलने नहीं जाने वाला
उस के अंदर से किसी बल के निकल जाने तक
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