हम अपनी जान से ऐ बुत बहुत बेज़ार बैठे हैं
हम अपनी जान से ऐ बुत बहुत बेज़ार बैठे हैं
मास्टर बासित बिस्वानी
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हम अपनी जान से ऐ बुत बहुत बेज़ार बैठे हैं
भरी बरसात में आकर पस-ए-दीवार बैठे हैं
करें क्या अर्ज़-ए-मतलब ख़ौफ़ से याँ जान जाती है
लिए वो हाथ में कुछ इस तरह तलवार बैठे हैं
पलट कर बस्तियों से यूँ कहा दाया ने शीरीं से
सुना कुछ और ऐ बिटिया वो तेशा मार बैठे हैं
हुए हैं कार-ज़ार-ए-इश्क़ में हम बे-तरह ज़ख़्मी
कि शक्ल-ए-तेग़ दिल पर अबरू-ए-ख़मदार बैठे हैं
हमारी ख़ुश-नसीबी से हुआ कुछ दाल में काला
रक़ीब-ए-रू-सियह को आज वो फटकार बैठे हैं
सितमगर देख लेना फट पड़ेंगे ग़ैर के सर पर
नहीं बे-वजह हम यूँ सूरत-ए-दीवार बैठे हैं
कहा ये आख़िरी हफ़्ते ने हँस कर अहल-कारों से
ज़रा देखो मिरे पीछे मियाँ इतवार बैठे हैं
सर-ए-महफ़िल जो उस बुत से कभी अर्ज़-ए-तमन्ना की
कहा चुपके से चुप रहिए अभी अग़्यार बैठे हैं
उठा कर चौक में सर शैख़ जी ने हँस के फ़रमाया
बहुत से दुश्मन-ए-ईमाँ सर-ए-बाज़ार बैठे हैं
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