हमारे दश्त के ज़र्रों में गुम है पहनाई
हमारे दश्त के ज़र्रों में गुम है पहनाई
इन्ही में ढूँडिए मैदान-ए-आबला-पाई
वकील-ए-कुफ़्र था कल गोया क़स्र-ए-काबुल में
वहीं से सूरत-ए-अन्नस्र की सदा आई
जुनून-ए-दजल में शहज़ादा शहर-साज़ है अब
वो बद-नसीब कि था अस्ल में तो सहराई
हदफ़ हैं ख़िलजी-ओ-औरंगज़ेब और आज़ाद
कि उन का जुर्म था अपने वतन की यकजाई
हज़ार नुक्ते किए ज़ेहन ने नए पैदा
किसी के काम न आई मगर ये दानाई
मैं इस जहान में कोई मिसाल बन न सका
मुआ'शरे ने अता की है मुझ को तन्हाई
इधर तो एशिया भी कोह-ए-बर्फ़ है 'तारिक़'
सफ़ेद साहतों में सोच भी है सरमाई
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