हमें यक़ीं था कि हम दोस्तों में रहते हैं
हमें यक़ीं था कि हम दोस्तों में रहते हैं
जो घर जला तो लगा दुश्मनों में रहते हैं
हम इक किरन हैं मगर बादलों में रहते हैं
बिछड़ के तुम से बड़ी उलझनों में रहते हैं
हमारे जीने की अब ये मिसाल है जैसे
कटे पिटे हुए जुमले ख़तों में रहते हैं
इन्ही सी चोट भी लगती है सर-बुलन्दों को
जो पत्थरों की तरह ठोकरों में रहते हैं
जो चेहरे चाँद से लगते हैं महफ़िलों में हमें
वो शम’-ए-कुश्ता की सूरत घरों में रहते हैं
कुछ ऐसे फूल हैं जिन को मिला नहीं माहौल
महक रहे हैं मगर जंगलों में रहते हैं
वतन की ख़ैर मनाओ कि दुश्मनान-ए-वतन
सहर से शाम तलक साज़िशों में रहते हैं
हमारे शहर में इंसान अब नहीं रहते
हम अपने शहर की परछाइयों में रहते हैं
उन्हीं को मेरे ग़मों की ख़बर नहीं है 'बशीर'
जो रूह बन के मिरी धड़कनों में रहते हैं
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