हर क़दम पर मिरे इक ख़ंजर-ए-उर्यां निकला
हर क़दम पर मिरे इक ख़ंजर-ए-उर्यां निकला
प्रेम नारायण सक्सेना राज़
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हर क़दम पर मिरे इक ख़ंजर-ए-उर्यां निकला
फिर भी मैं कूचा-ए-क़ातिल से ग़ज़ल-ख़्वाँ निकला
कर गई मुझ पे वो ए'जाज़ तिरी एक नज़र
जो भी निकला मिरे नज़दीक से हैराँ निकला
मेरी फ़ितरत में थी पिन्हाँ वो बहार-ए-दाइम
मैं बहर-रंग ब-शक्ल-ए-गुल-ए-ख़ंदाँ निकला
वो बदलता रहा हर बात के इतने पहलू
मुद्दआ' कोई भी हरगिज़ न नुमायाँ निकला
आह इस तौर गुलिस्ताँ में लुटी फ़स्ल-ए-बहार
चश्म-ए-गिर्यां से मिरी ख़ून-ए-बहाराँ निकला
जाने किस ग़म ने वो तहरीक-ए-मसर्रत बख़्शी
दिल-ए-ग़म-गीं से मिरे नग़्मा-ए-शादाँ निकला
हरम-ओ-दैर की हर क़ैद से मुतलक़ आज़ाद
मुझ सा काफ़िर ही कोई साहब-ए-ईमाँ निकला
आप पर हो चुका सौ जान से क़ुर्बां लेकिन
आप पर मिटने का इस दिल से न अरमाँ निकला
हौसला हो तो मिरा और तआ'क़ुब कर ले
तुझ से मैं तेज़ क़दम गर्दिश-ए-दौराँ निकला
एक ही झोंके ने गुल कर दिए सब घर के चराग़
इस क़दर तुंद इधर से कोई तूफ़ाँ निकला
सुख़न-ए-'राज़' की दी दाद किसी ने आख़िर
शुक्र है बज़्म में कोई तो सुख़न-दाँ निकला
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