Font by Mehr Nastaliq Web

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

रद करें डाउनलोड शेर

हवा-ए-शाम चले तो बिखरने लगती हूँ

तसनीम आबिदी

हवा-ए-शाम चले तो बिखरने लगती हूँ

तसनीम आबिदी

MORE BYतसनीम आबिदी

    हवा-ए-शाम चले तो बिखरने लगती हूँ

    मैं दश्त-ए-दिल से सिमट कर गुज़रने लगती हूँ

    अज़ल से ता-ब-अबद एक लम्हा मेरा है

    तिरी निगाह में जिस दम ठहरने लगती हूँ

    नज़र के लम्स से रंग-ए-बदन छुपाती रही

    मैं तितलियों की तरह क्यों कि मरने लगती हूँ

    मिली फ़िराक़ के आईने में पनाह मुझे

    विसाल-ए-हर्फ़ में ढल कर सँवरने लगती हूँ

    वरक़ पे सादा तमन्ना के ख़ाल-ओ-ख़द हैं मगर

    मैं सोच कर तुझे कुछ रंग भरने लगती हूँ

    जब आगही के ख़द्द-ओ-ख़ाल देखती हूँ कभी

    तो अपने हुस्न-ए-तहय्युर से डरने लगती हूँ

    अगर तू वा'दा निभाता नहीं तो उस लम्हे

    मैं अपने आप से भी ख़ुद मुकरने लगती हूँ

    स्रोत :
    • पुस्तक : ردائے ہجر (पृष्ठ 106)
    • रचनाकार : تسنیم عابدی

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    Jashn-e-Rekhta | 13-14-15 December 2024 - Jawaharlal Nehru Stadium , Gate No. 1, New Delhi

    Get Tickets
    बोलिए