हवा ज़माने की साक़ी बदल तो सकती है
हवा ज़माने की साक़ी बदल तो सकती है
हयात साग़र-ए-रंगीं में ढल तो सकती है
बस इक लतीफ़ तबस्सुम बस इक हसीन नज़र
मरीज़-ए-दिल की ये हालत सँभल तो सकती है
जहाँ से छोड़ रहे हो मुझे अँधेरे में
वहीं से राह-ए-मोहब्बत निकल तो सकती है
फिर अपने गुंचा-ए-ज़ख़्म-ए-जिगर का क्या होगा
नसीम-ए-सुब्ह मिरी सम्त चल तो सकती है
तिरी निगाह-ए-करम की क़सम है अब भी मुझे
यही यक़ीन कि दुनिया बदल तो सकती है
'सलाम' जाम-ओ-सुबू की ये शाइरी मालूम
वगर्ना अपनी तबीअ'त बहल तो सकती है
- पुस्तक : Noquush (पृष्ठ B-365 E-379)
- प्रकाशन : Nuqoosh Press Lahore (May June 1954)
- संस्करण : May June 1954
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