हुनर जो तालिब-ए-ज़र हो हुनर नहीं रहता
हुनर जो तालिब-ए-ज़र हो हुनर नहीं रहता
महल-सरा में कोई कूज़ा-गर नहीं रहता
बिछड़ते वक़्त किसी से हमें भी था ये गुमाँ
कि ज़ख़्म कैसा भी हो उम्र-भर नहीं रहता
मैं अपने हक़ के सिवा माँगता अगर कुछ और
तो मेरे हर्फ़-ए-दुआ में असर नहीं रहता
कुछ और भी गुज़र-औक़ात के वसीले हैं
गदा ख़ज़ीना-ए-कशकोल पर नहीं रहता
वो कौन है जो मुसाफ़िर के साथ चलता है
ख़याल-ए-यार भी जब हम-सफ़र नहीं रहता
जिसे बनाते सजाते हैं जिस में रहते हैं
सवेरे आँख खुले तो वो घर नहीं रहता
खुली फ़ज़ा न रहे याद अगर परिंदों को
ग़म-ए-शिकस्तगी-ए-बाल-ओ-पर नहीं रहता
हम एक शब में कई ख़्वाब देखते हैं सो अब
वो आ के ख़्वाब में भी रात-भर नहीं रहता
'कमाल' लोग भी क्या हैं गुमाँ ये रखते हैं
जो बस गया हो कहीं दर-ब-दर नहीं रहता
- पुस्तक : Khizan mera Mosam (पृष्ठ 97)
- रचनाकार : Hassan Akbar Kamal
- प्रकाशन : Seep Publications, karachi (1980)
- संस्करण : 1980
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.