हुस्न-ए-तलब को वस्फ़ तुम्हारा समझ लिया
हुस्न-ए-तलब को वस्फ़ तुम्हारा समझ लिया
हम ने झुकी नज़र का इशारा समझ लिया
अंदर से टूट फूट भी होती चली गई
हम ने शिकस्त-ए-जाँ को गवारा समझ लिया
मानूस इस तरह हुए तुग़्यानियों से हम
मौज-ए-बला को हम ने किनारा समझ लिया
अपनों से दूर ग़ैर तो फिर ग़ैर था मगर
तिनके को डूबते ने सहारा समझ लिया
आया शब-ए-फ़िराक़ जो आँसू पलक तलक
हम ने उसी को सुब्ह का तारा समझ लिया
सूद-ओ-ज़ियाँ में इस लिए हम घिर गए बहुत
आसूदगी को हम ने सहारा समझ लिया
'आदिल' ने बोलती हुई आँखों में झाँक कर
मफ़्हूम इल्तिफ़ात का सारा समझ लिया
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