हुस्न जो लब कुशा हुआ ग़ुंचे चटक चटक गए
हुस्न जो लब कुशा हुआ ग़ुंचे चटक चटक गए
हम तो हरीम-ए-नाज़ में आज बहक बहक गए
गर्मी-ए-चश्म-ए-मस्त से शीशे दरक दरक गए
जाम छलक छलक गए रिंद बहक बहक गए
हुस्न की बारगाह में कह न सके हदीस-ए-ग़म
आँख उठी न लब हिले हम ही झिजक झिजक गए
उस से बिछड़ के उम्र भर फिरते रहे हैं दर-ब-दर
मंज़िलें सर हुईं मगर राह भटक भटक गए
आई जो मुद्दतों के बा'द उस बुत-ए-हीला-जू की याद
ज़ब्त के बावजूद 'राज़' अश्क टपक टपक गए
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