इक बात वो कि चाह के मुँह से अदा न हो
इक बात वो कि चाह के मुँह से अदा न हो
कहने को शे'र जैसे कोई क़ाफ़िया न हो
इक बात जिस की जुरअत-ए-इज़हार हो मुहाल
इक शाख़ जिस पे फूल कोई भी नया न हो
शा'इर कि जिस को अपना सुख़न बेचना पड़े
और उस के पास और कोई रास्ता न हो
यूँ हो कि दरमियाँ हों भले रंजिशें मगर
इक दूसरे से कोई कभी भी जुदा न हो
वहशी हवाएँ आती हों जंगल की सम्त से
इस घर में और कोई दरीचा खुला न हो
इक शाम जिस में टूट पड़ें कोह-ए-ग़म कई
इक शहर जिस में कोई भी ग़म-आश्ना न हो
इक 'अक्स माँगता रहे इज़्न-ए-कलाम और
पेश-ए-निगाह कोई मगर आइना न हो
इक चीख़ यूँ कि दिल की फ़ज़ा मुतमइन रहे
लगने को लग रहा हो प महशर बपा न हो
तर्क-ए-अना नहीं न सही राह-ए-'इश्क़ में
लेकिन रहे धियान कि तर्क-ए-वफ़ा न हो
इक रात पुर-तपाक-ओ-धनक-रंग-ओ-पुर-शरर
इक ताक़चा कि जिस में कोई भी दिया न हो
रहता हो जाँ-बलब कोई उस की तलाश में
और 'अर्श पार भी कोई उस का ख़ुदा न हो
जोश-ए-क़दह से बज़्म-ए-तरब झूम उठी हो और
फिर उस पे ये कि कोई भी नग़्मा-सरा न हो
वो बात कर कि जिस से लहू खौलने लगे
वो दर्द दे कि जिस की कोई भी दवा न हो
उस राह चल कि जिस पे कभी भी चला न था
वो काम कर जो पहले कभी भी किया न हो
मंज़िल पुकारती रहे पूरे तपाक से
चलने का अब मज़ीद मगर हौसला न हो
हो भी तो दिल को भाए न कोई ख़ुशी 'दोरैब'
यूँ भी ग़म-ए-हयात की अब इब्तिदा न हो
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