इश्क़ को ख़ून-ए-जिगर की है तलब कहते हैं
इश्क़ को ख़ून-ए-जिगर की है तलब कहते हैं
ज़ख़्म खाने को वफ़ाओं का अदब कहते हैं
हुस्न की धूप में निखरा हुआ फूलों सा बदन
दिल के लुट जाने का इस को ही सबब कहते हैं
ख़ाक मलता है फ़लक आ के मिरे क़दमों की
ख़ाकसारी को बुलंदी का लक़ब कहते हैं
वो भी लहरा के हर इक दर्द सुना करती है
क़ैद का वाक़िआ' ज़ंजीर से जब कहते हैं
तुम ये मानो कि न मानो है तुम्हारी मर्ज़ी
इश्क़ को दान सही जीने को ढब कहते हैं
दिल में तूफ़ाँ जो छुपाए हो छुपाए रक्खो
सारा अफ़्साना लरज़ते हुए लब कहते हैं
तुम दिवाने हो ये सच है इसे तस्लीम करो
हम नहीं कहते फ़क़त शहर में सब कहते हैं
इन को देखूँ तो इन्हें मेरी नज़र लग जाए
ऐसा होता है कहीं आप ग़ज़ब कहते हैं
दिल जो रोता है उसे गाते हुए निकले 'नदीम'
लोग इस दर्द-ए-मोहब्बत को अदब कहते हैं
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