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इसी को हाँ इसी को इश्क़ का नज़राना कहते हैं

तालिब देहलवी

इसी को हाँ इसी को इश्क़ का नज़राना कहते हैं

तालिब देहलवी

MORE BYतालिब देहलवी

    रोचक तथ्य

    (23rd July, 1945)

    इसी को हाँ इसी को इश्क़ का नज़राना कहते हैं

    सरिश्क-ए-ग़म को या'नी गौहर-ए-यक-दाना कहते हैं

    हँसी आती है मस्तों को जुनूँ-ना-आश्नाओं पर

    करे जो होश की बातें उसे दीवाना कहते हैं

    किसी को ग़म किसी का है किसी को ग़म किसी का है

    ब-उनवान-ए-दिगर सब एक ही अफ़्साना कहते हैं

    उठा देगी उन्हें दुनिया किसी दिन अपने हाथों से

    जो इस मेहमाँ-सरा में ख़ुद को साहब-ख़ाना कहते हैं

    नहीं एहसास कुछ भी अपनी मोहसिन-ना-शनासी का

    चमन में रह के भी सब्ज़ा को हम बेगाना कहते हैं

    तसव्वुर ने बदल दी है दिल-ए-बर्बाद की सूरत

    ये काबा था मगर अब हम इसे बुत-ख़ाना कहते हैं

    समाई रखने वालों का दहन वा हो नहीं सकता

    जो हैं कम-ज़र्फ़ राज़-ए-बादा-ओ-पैमाना कहते हैं

    समझ सकता नहीं कोई ज़बाँ अहल-ए-मोहब्बत की

    जिसे अपना समझते हैं उसे बेगाना कहते हैं

    नज़र आता नहीं दुनिया का नक़्शा मो'तबर कोई

    उसे बस्ती समझते हैं हम वीराना कहते हैं

    ब-क़द्र-ए-आरज़ू कोई यहाँ रहने नहीं पाता

    ग़लत क्या है जो दुनिया को मुसाफ़िर-ख़ाना कहते हैं

    पतंगे ही के सर सहरा बंधे क्यों सरफ़रोशी का

    जो अपनी जान पर खेले उसे परवाना कहते हैं

    अक़ीदत से सर-ए-मोमिन झुका है संग-ए-असवद पर

    इसी को इत्तिहाद-ए-काबा-ओ-बुत-ख़ाना कहते हैं

    नज़र आता है सरमस्ती का आलम ज़र्रे ज़र्रे में

    इसी निस्बत से हम दुनिया को इक मय-ख़ाना कहते हैं

    'नज़र' और 'शाद' की ग़ज़लों पे 'तालिब' का ग़ज़ल कहना

    वो जुरअत है जिसे सब जुरअत-ए-रिंदाना कहते हैं

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