इतने झेले गए उल्फ़त में वो आज़ार कि बस
इतने झेले गए उल्फ़त में वो आज़ार कि बस
रूह भी लगने लगी है मिरी बीमार कि बस
आज के दौर का ऐ दोस्त ये किरदार कि बस
लहजा हर शख़्स का जैसे कोई तलवार कि बस
हर तरफ़ लोग बरहना से नज़र आते हैं
ऐसे होते हैं तिरे शहर के बाज़ार कि बस
तेरी मर्ज़ी तू जहाँ चाहे हमें ले जाए
हम ने दे दी है तिरे हाथ में पतवार कि बस
ज़ुल्म सह कर भी जो ख़ामोश खड़े रहते हैं
वो सभी होते हैं ज़ालिम के तरफ़-दार कि बस
उस जगह होती है शैताँ की हुकूमत यारो
सर उठाती है जहाँ पर भी ये तकरार कि बस
ऐसे मिलते हैं सगे भाई भी हम से 'आतिफ़'
दरमियाँ जैसे खड़ी हो कोई दीवार कि बस
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