जब आए चंद हर्फ़-ए-शिकायत ज़बान पर
जब आए चंद हर्फ़-ए-शिकायत ज़बान पर
नालों का शोर जाने लगा आसमान पर
आया मिज़ाज-ए-यार अगर इम्तिहान पर
हम कुश्तगान-ए-ज़ौक़ हैं खेलेंगे जान पर
इक गर्द-बाद-ए-ख़ाक का नक़्शा है ज़िंदगी
गोया कि हैं ज़मीं पे न हम आसमान पर
हालाँकि बे-ज़बान हैं नक़्श-ए-क़दम की तरह
लेकिन मिटे हुए हैं तुम्हारे बयान पर
मुद्दत हुई कि हम सू-ए-सहरा नहीं गए
वीरान अब हमारी जगह है मकान पर
जोश-ए-शराब-ए-इश्क़ है और शौक़-ए-जान है
हम बे-ख़ुदी में खेल ही जाएँगे जान पर
हम जानते हैं वादा-ए-मौहूम को मगर
क़ुर्बान कर रहे हैं यक़ीं को गुमान पर
क्या इस जहान से है ज़ियादा वहाँ का लुत्फ़
मरते हैं लोग सैकड़ों क्यों उस जहान पर
दुश्मन है बर्क़-ओ-बाद तो दुश्मन है बाग़बाँ
क्या क्या सितम हैं चंद असीरों की जान पर
फैला हुआ है क़िस्सा-ए-मंसूर हर तरफ़
ज़िन्हार राज़-ए-दोस्त न आए ज़बान पर
ऐ ख़ाक-ए-गोर इतने न दे रंज बे-शुमार
करता नहीं है कोई जफ़ा मेहमान पर
'मसऊद' रास्त-बाज़ वो समझेंगे किस तरह
जब है यक़ीं दरोग़ का तेरे बयान पर
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