जब भी पेड़ों से जाँ निकलती है
ज़िंदगी बे-अमाँ निकलती है
हम जिसे वाक़िआ' समझते हैं
वो कोई दास्ताँ निकलती है
महफ़िल-ए-जान-ए-जाँ का मत पूछो
हसरत-ए-दीद वाँ निकलती है
जब भी मौसम हो सब्ज़ पत्तों का
हसरत-ए-बद-गुमाँ निकलती है
साहिबान-ए-करम के सदक़े से
मस्ती-ए-जिस्म-ओ-जाँ निकलती है
आह उठती है वादी-ए-दिल से
फिर सू-ए-आसमाँ निकलती है
जानिब-ए-रफ़्तगाँ नहीं जाती
ज़िंदगी फिर कहाँ निकलती है
जिन के होंटों को चुप सी लग जाए
उन की पूरी ज़बाँ निकलती है
याद-ए-माज़ी भी दीदा-ए-तर से
सूरत-ए-कारवाँ निकलती है
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