जहाँ 'अक़्ल का भी गुज़र न हो जहाँ 'इश्क़ का भी असर न हो
जहाँ 'अक़्ल का भी गुज़र न हो जहाँ 'इश्क़ का भी असर न हो
काैसर परवीन काैसर
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जहाँ 'अक़्ल का भी गुज़र न हो जहाँ 'इश्क़ का भी असर न हो
मुझे उस जगह की तलाश है जहाँ ख़ुद को ख़ुद की ख़बर न हो
ये रवा नहीं किसी तौर भी उसे मेरे दिल की ख़बर न हो
शब-ए-वस्ल की जो दु'आ करूँ तो मिरी दु'आ में असर न हो
मैं समझ रही हूँ दिगर जिसे वो हरीफ़ मेरा जिगर न हो
मैं फ़राज़-ए-दार से देख लूँ कहीं कारवान-ए-सहर न हो
कहीं वक़्त भी न हो बद-गुमाँ मिरे ज़ब्त का न ले इम्तिहाँ
मैं गिरह जो ज़ुल्फ़ की खोल दूँ तो नसीब तुझ को सहर न हो
न ज़मीं रहे न तो आसमाँ रहे कुछ अगर तो धुआँ धुआँ
मुझे डर तो है इसी बात का जो ख़लिश इधर है उधर न हो
वो हयात-ए-नौ के हों मरहले कि हों हुस्न-ओ-'इश्क़ के फ़लसफ़े
है वो गुफ़्तुगू कोई गुफ़्तुगू तिरे दिल पे जिस का असर न हो
यही सर-बुलंदी का राज़ है यही ‘अबदियत का ख़राज है
मिले ‘अबदियत का शरफ़ कहाँ तिरे दर पे गर मिरा सर न हो
कहाँ चश्म-ए-'कौसर'-ए-ना-तवाँ कहाँ हुस्न की वो तजल्लियाँ
उसे देखने की तू ज़िद न कर कहीं गुल चराग़-ए-नज़र न हो
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