झोंपड़ों पर मुफ़्लिसी के ख़ूब चिल्लाती है धूप
झोंपड़ों पर मुफ़्लिसी के ख़ूब चिल्लाती है धूप
नज़ाक़तुल्लाह खां फ़ैज़ी खां फ़ैज़ी
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झोंपड़ों पर मुफ़्लिसी के ख़ूब चिल्लाती है धूप
हाँ मगर देखा कि ज़रदारों से शरमाती है धूप
गर्दिशों से थक के घर में जब पड़ा रहता हूँ मैं
सहन-ए-ख़ाना में मिरे तलवों को सहलाती है धूप
छीन लेती है कभी चेहरों से गुल-शादाबियाँ
और कभी ठिठुरे हुए जिस्मों को गरमाती है धूप
फेरती है बस्तियों पर हाथ जितने प्यार से
तैश में उतने ही सहराओं पे बल खाती है धूप
रहम का एहसास तक फ़ितरत में उस की है गुनाह
बरहना जिस्मों पे अक्सर आग बरसाती है धूप
बरहना-पा धूप को रौंदे जो कोई नाज़नीं
अपनी इस तौहीन पर भी तिलमिला जाती है धूप
छत न होने से अँधेरों का नहीं होता गुज़र
घर में 'फ़ैज़ी' के मगर हमदम उतर आती है धूप
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