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जिगर के छालों को दीदा-ए-तर हरा तू रखना बरस बरस के

शब्बीर रामपुरी

जिगर के छालों को दीदा-ए-तर हरा तू रखना बरस बरस के

शब्बीर रामपुरी

MORE BYशब्बीर रामपुरी

    जिगर के छालों को दीदा-ए-तर हरा तू रखना बरस बरस के

    कहीं बन जाएँ दाग़ काले ये सोज़-ए-ग़म से झुलस झुलस के

    हमारे दिल में भी हसरतें थीं हमें भी हासिल मसर्रतें थीं

    वो मिट चुकीं अब जो आदतें थीं ये तज़्किरे हैं कई बरस के

    अब है साक़ी अब है साग़र वो दिन गए ऐश था मयस्सर

    हमें रुलाया है ख़ून शब भर घटा ने शब को बरस बरस के

    मिटाईं ग़म-ख़्वारियों की राहें दिखाईं क्यों यास की निगाहें

    अबस भरीं मैं ने सर्द आहें कि उड़ गए होश हम-नफ़स के

    कभी चमन के थे रहने वाले कभी थे आज़ाद रंज-ओ-ग़म से

    पूछ सय्याद वो फ़साने कि अब तो क़ैदी हैं हम क़फ़स के

    निगाह 'शब्बीर' से जो फेरी तो तू ने साक़ी पिलाई क्यूँकर

    ये बे-रुख़ी ऐसी बे-वफ़ाई फिर चखाई लगा के चसके

    स्रोत :
    • पुस्तक : غزل اس نے چھیڑی-5 (पृष्ठ 73)
    • रचनाकार : فرحت احساس
    • प्रकाशन : ریختہ بکس ،بی۔37،سیکٹر۔1،نوئیڈا،اترپردیش۔201301 (2018)

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