जिस घड़ी राह-ए-पुर-ख़ार मैं ने चुनी साथ उस ने भी अज़्म-ए-सफ़र कर लिया
जिस घड़ी राह-ए-पुर-ख़ार मैं ने चुनी साथ उस ने भी अज़्म-ए-सफ़र कर लिया
फ़िरोज़ नातिक़ ख़ुसरो
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जिस घड़ी राह-ए-पुर-ख़ार मैं ने चुनी साथ उस ने भी अज़्म-ए-सफ़र कर लिया
सुब्ह सूरज निकलने से पहले चले, जिस जगह हो गई रात घर कर लिया
दम-ब-दम एक दीवार उठती गई इक छुरी मेरा सीना खुरचती गई
जैसे जैसे घुटन शहर की बढ़ चली मैं ने दिल में नया एक दर कर लिया
इक सदा मेरे कानों में आती रही इक बला नाम ले कर बुलाती रही
मुड़ के देखा न मैं ने कभी राह में जो सफ़र तय किया बे-ख़तर कर लिया
ज़िंदगी अपनी गुज़री है दुख बाँटते, बाढ़ काँटों की हर हर क़दम छाँटते
हिज्र की फ़स्ल पलकों तले काटते जो भी कोह-ए-गिराँ था वो सर कर लिया
उन के आने की फैली ख़बर चार-सू आईने मह जबीनों के हैं रू-ब-रू
मैं ने भी उन के चेहरे पे डाली नज़र रौशनी को असीर-ए-नज़र कर लिया
लोग आते हैं मेरा पता पूछते मेरे शे'रों को पढ़ कर तुझे ढूँडते
तुझ पे मेरे सुख़न का न जादू चला मैं ने दुनिया दुनिया को असर कर लिया
हासिदों के मैं ता'नों का सुनता रहा, रेज़ा रेज़ा वजूद अपना चिंता रहा
बारिश-ए-संग में भी न पीछे हटा, मैं ने उस दिल को पत्थर का घर कर लिया
गुम-शुदा रास्तों का पता हाथ में, बीती यादों का बस्ता लिए साथ में
मैं ने सहरा को अपना त'आरुफ़ किया और क़लम अपना दस्त-ए-हुनर कर लिया
मैं ने ख़ुद को महलों में बाँटा नहीं, मैं ने ख़ानों में लोगों को छाँटा नहीं
मुझ को दाद-ए-सुख़न से ग़रज़ अब नहीं मैं ने हर्फ़-ए-सुख़न मो'तबर कर लिया
'उम्र बढ़ती गई जूँ जूँ माँ-बाप की, आमद-ओ-रफ़्त महदूद होती गई
बैठे बैठे दर-ओ-बाम तकते रहे बोलना-चालना मुख़्तसर कर लिया
धीरे धीरे चट्टानें पिघलती रहीं क़तरा क़तरा समुंदर निगलती रहीं
वो जो आँसू न ढलका कभी गाल पर, उस को दिल के सदफ़ ने गुहर कर लिया
बाप की डाँट भी मुझ को ऐसी मिली जैसे माँ की मोहब्बत की मिस्री डली
क़ुफ़्ल दिल की तिजोरी को मैं ने किया और महफ़ूज़ ये माल-ओ-ज़र कर लिया
मौसमों के ग़ज़ब से बचाते हुए, अपनी बाहोँ का हल्क़ा बनाते हुए
दुख उठाए जहाँ मेरी माँ ने बहुत, अपने आँगन का पौदा शजर कर लिया
मैं ने बचपन गुज़ारा है अपना यहाँ उस के साए में पल कर हुआ मैं जवाँ
कैसे भूलूँ मैं 'ख़ुसरव' ये कच्चा मकाँ, उस मकाँ ने मिरे दिल में घर कर लिया
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