जो हर दम ज़ेहन में चुभती है वो सिलवट नहीं जाती
जो हर दम ज़ेहन में चुभती है वो सिलवट नहीं जाती
कि बिस्तर पर भी मेरे दिल की घबराहट नहीं जाती
मैं अपनी ज़िंदगी से बरसर-ए-पैकार हूँ फिर भी
अना के सहन से एहसास की आहट नहीं जाती
सर-ए-मग़रूर को चौखट की 'अज़्मत खींच लेती है
किसी का सर झुकाने के लिए चौखट नहीं जाती
मैं रक्खूँ लाख मीठे बोल चुन कर अपने होंटों पर
मगर लहजे से सच्चाई की कड़वाहट नहीं जाती
बता देती है हाल-ए-दिल निगाह-ए-मुज़्तरिब उन की
परेशाँ हो के 'आरिज़ की तरफ़ अब लट नहीं जाती
समझता हूँ कि वो इक बार आ कर फिर नहीं आए
मगर क़दमों की उन के आज तक आहट नहीं जाती
जलाएँगे दिलों को ता-ब-कय शो'ले मज़ालिम के
फ़ज़ा क्यों गर्म आहों के धुएँ से अट नहीं जाती
अगर फूलों की सेजों पर वो महव-ए-ख़्वाब रहते हैं
तो क्या काँटों के बिस्तर पर मिरी शब कट नहीं जाती
'अतीक़' अच्छा नहीं होता ग़ुरूर अपने बड़े-पन का
बुज़ुर्गों के क़दम छूने से 'अज़्मत घट नहीं जाती
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