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जो कुछ देखा और समझा है नज़्र-ए-लौह-ओ-क़लम करता हूँ

नईम समीर

जो कुछ देखा और समझा है नज़्र-ए-लौह-ओ-क़लम करता हूँ

नईम समीर

MORE BYनईम समीर

    जो कुछ देखा और समझा है नज़्र-ए-लौह-ओ-क़लम करता हूँ

    या'नी चश्म-ए-हैरत पर मैं सच्चे ख़्वाब रक़म करता हूँ

    पहले मेरी दानाई पर कोई वहशत छा जाती है

    और फिर पूरी क़ुव्वत से मैं उस की शिद्दत कम करता हूँ

    ज़ख़्म-ए-मलामत नोचते रहना वैसे भी तो बे-मसरफ़ है

    जितना हो सकता है मुझ से बस उतना ही ग़म करता हूँ

    यूँ तो सारे जग से लड़ कर मैं ने ख़ुद को मनवाया है

    लेकिन इक गोशे में अपने होने का मातम करता हूँ

    दिल और दुनिया एक जगह पर यकसाँ रौशन कब होते हैं

    एक चराग़ की लौ भड़का कर एक दिया मद्धम करता हूँ

    वर्ना 'समीर' इस सन्नाटे में कोई कैसे रह सकता है

    जिस हद तक मुमकिन हो मुझ से आवाज़ें पैहम करता हूँ

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