कारवाँ वालों ने खो दी ख़ुद ही अपनी आबरू
कारवाँ वालों ने खो दी ख़ुद ही अपनी आबरू
लैला-ए-महमिल-नशीं को पा-ब-जौलाँ लाए हैं
क़ैस की ग़ैरत का मिलता ही नहीं कोई सुराग़
कुछ बगूले ढूँड कर सहरा-ब-सहरा आए हैं
डस लिया है रौशनी ने दे के जलवोें का फ़रेब
साँप कितने उस के उजले रूप में लहराए हैं
आइने टूटे हैं कितने देख कर उन का जमाल
आप अपनी आरज़ू-ए-हुस्न पर शरमाए हैं
कौन जाने हो चुके मस्लूब कितने अश्क-ए-ग़म
कितनी फ़रियादों के दिल हुस्न-ए-तलब ने ढाए हैं
कितनी ज़ंजीरों के हल्क़े पायलों में ढल गए
शबनमी आँखों में रक़्साँ बेबसी के साए हैं
'बख़्त' शिकवा क्या करें अहल-ए-सितम के जौर का
अहल-ए-दिल ने गीत मर्ग-ए-आबरू पर गाए हैं
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