कब इस ज़मीं की सम्त समुंदर पलट कर आए
कब इस ज़मीं की सम्त समुंदर पलट कर आए
इज़हार-ए-अव्वलीं का वो मंज़र पलट कर आए
जब हर्फ़ लिख दिया है तो क्यूँ मुश्तहर न हो
निकला कमाँ से तीर तो क्यूँकर पलट कर आए
हो सारे शहर में ये मुनादी कि जश्न हो
अपनी ही सफ़ में हारे दिलावर पलट कर आए
या बे-ख़बर थे वुसअ'त-दरिया-ए-रंग से
या चश्म-ए-बे-हुनर थे शनावर पलट कर आए
बाज़ार पुर-हुजूम ख़रीदार कम-सवाद
चुप-चाप ले के अपने गुल-ए-तर पलट कर आए
इतने बख़ील पेड़ न देखे थे आज तक
बे-फ़स्ल बे-समर मिरे पत्थर पलट कर आए
असनाम का हुजूम कभी इस क़दर न था
इन वादियों में कौन से आज़र पलट कर आए
क्या इक खुला फ़ुसूँ है शफ़क़ रंग दोपहर
क्या रात हो गई है कि शहपर पलट कर आए
'मंज़ूर' फिर ज़मीं पे उजाला हो एक बार
काश एक बार फिर वो पयम्बर पलट कर आए
- पुस्तक : Sher-e-Aasman (पृष्ठ 31)
- रचनाकार : Maktaba aariz
- प्रकाशन : Maktaba aariz
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.