कहीं मौजें सुलगती हैं कहीं तूफ़ान जलते हैं
कहीं मौजें सुलगती हैं कहीं तूफ़ान जलते हैं
तिरी फ़ुर्क़त में हम से सैकड़ों इंसान जलते हैं
जो कल तक फूल बरसाते रहे हैं अपनी राहों में
वही हमदर्द अब हम से ब-हर 'उन्वान जलते हैं
ख़ुदा के नेक बंदे आज भी साग़र-ब-कफ़ निकले
हमारी बादा-नोशी से मगर शैतान जलते हैं
हमारे दिल भी अब कुछ इस तरह जलते हैं सीनों में
अमीरों के घरों में जैसे आतिश-दान जलते हैं
चराग़-ए-आरज़ू से रौशनी है दिल की बस्ती में
तमन्ना की तपिश पा कर यहाँ अरमान जलते हैं
मचलते हैं इधर साक़ी उधर साग़र खनकते हैं
गुलों की शो'ला-सामानी से जब गुलदान जलते हैं
शिकम की आग में इंसानियत के नाम पर 'ज़ैदी'
कहीं मज़दूर जलते हैं कहीं दहक़ान जलते हैं
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