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कहने को कमरे में सारे यकजा बैठे हैं

अखिलेश तिवारी

कहने को कमरे में सारे यकजा बैठे हैं

अखिलेश तिवारी

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    कहने को कमरे में सारे यकजा बैठे हैं

    अपने अपने मोबाइल पर तन्हा बैठे हैं

    अपने ही ख़्वाबों को करके पिंजरा बैठे हैं

    करने क्या आए थे लेकिन कर क्या बैठे हैं

    जाने किस के हाथ लगा चेहरा जो अपना था

    बे-मतलब कब से ले कर आईना बैठे हैं

    एक सबक़ रटते तो हैं पर याद नहीं होता

    तिफ़्ल-ए-मकतब कब से खोले बस्ता बैठे हैं

    फिर वीरान शजर पर वो ही रौनक़ लौटी है

    फिर वो पंछी वापस डालों पर बैठे हैं

    नाहक़ आप निकल आए दिल की पगडंडी पर

    ख़ारों में अब अपना दामन उलझा बैठे हैं

    तन्हाई वाहिद रस्ता था तुम तक आने का

    दुनिया वाले इस पर भी दुनिया ला बैठे हैं

    एक समुंदर भेद छुपाए जज़्ब करे सब को

    आस लगाए कब से कितने दरिया बैठे हैं

    रोज़ वही आहट वो ही सरगोशी भीतर से

    अपने में हम अपने से ही उक्ता बैठे हैं

    शाम से पहले लौट के घर आने की उजलत में

    सीधा सा रस्ता रस्तों में उलझा बैठे हैं

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