कई बार उन की महफ़िल में हमारा ज़िक्र-ए-ख़ैर आया
कई बार उन की महफ़िल में हमारा ज़िक्र-ए-ख़ैर आया
अब्दुल अज़ीज़ फ़ितरत
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कई बार उन की महफ़िल में हमारा ज़िक्र-ए-ख़ैर आया
मगर इज़हार-ए-लुत्फ़-ए-दोस्त-दारी के बग़ैर आया
समझता हूँ ये संग-ए-राह का'बा है समझता हूँ
मगर शाम आई और मैं लौट कर फिर सू-ए-दैर आया
जमाल-ए-दोस्त से पुर-नूर है दुनिया-ए-दिल मेरी
ख़याल-ए-दोस्त इस घर में तकल्लुफ़ के बग़ैर आया
न डर गिर्दाब-ए-ग़म का है न तूफ़ान-ए-हवादिस का
दिल-ए-आज़ाद इन मौजों में लाखों बार तैर आया
झलकते हैं मिज़ा पर अश्क-ए-दिल सज्दे लुटाता है
ज़बान-ए-बे-कसी पर आज किस का ज़िक्र-ए-ख़ैर आया
रह-ए-हस्ती में सौ मुश्किल की इक मुश्किल ये थी 'फ़ितरत'
दिल-ए-नादाँ ने समझा ये हरम है जब भी दैर आया
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