खनकते सिक्कों की अर्थी जहाँ से गुज़री है
खनकते सिक्कों की अर्थी जहाँ से गुज़री है
क़ाज़ी सय्यद मुही एहफ़ाज़ शजीअ
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खनकते सिक्कों की अर्थी जहाँ से गुज़री है
ग़रीबी कासा लिए फिर वहाँ से गुज़री है
हमारे दिल की लगी जब गुमाँ से गुज़री है
कभी ज़मीं तो कभी आसमाँ से गुज़री है
अभी तो हल्क़ा-ए-ज़ंजीर पाँव में है मिरे
अभी सदा मिरी आह-ओ-फ़ुग़ाँ से गुज़री है
चढ़ा के आग पे हाँडी में भूक बच्चों की
तसल्ली माँ की बड़े इम्तिहाँ से गुज़री है
लकीर खींच दी नफ़रत की दो क़बीलों में
कभी जो तेग़-ए-हवस दरमियाँ से गुज़री है
सजा दिए गए काँटे दिलों के आँगन में
तअ'स्सुबात की देवी जहाँ से गुज़री है
उन्हें मिलेगा भला कैसे मंज़िलों का निशाँ
कि मंज़िलों की तलब कारवाँ से गुज़री है
रहा 'शजीअ' भी माँ की दुआओं का मुहताज
हयात जब भी किसी इम्तिहाँ से गुज़री है
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