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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

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खंडर की तरह से वो धीरे धीरे ढहता था

मुसव्विर सब्ज़वारी

खंडर की तरह से वो धीरे धीरे ढहता था

मुसव्विर सब्ज़वारी

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    खंडर की तरह से वो धीरे धीरे ढहता था

    ये हादिसा तो ज़रूरी है दिल कहता था

    समेट लो कोई किरची पड़ी जो मिल जाए

    वो अक्स टूटे हुए आइनों में रहता था

    मैं उस गली का मुसाफ़िर था पर ख़बर हुई

    कि खिड़की खिड़की कोई सुर्ख़ चाँद गहता था

    ये कैसी खोखली चाहत की धूल उड़ने लगी

    तिरी रगों से तो मेरा ही ख़ून बहता था

    जो गिरता जिस्म सँभाले रहा था हम सब को

    वो शीशा था जो चटानों का बोझ सहता था

    मैं तेरी क़ब्र की मिट्टी भी नम कर पाया

    तू अपने होंटों से मेरा ही दर्द कहता था

    तमाम शहर 'मुसव्विर' था ख़्वाब की बस्ती

    मिरे ही कानों में चीख़ों का सीसा बहता था

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