ख़िराम-ए-नाज़-ए-गुलचीं देख कर बाद-ए-सबा ठहरे
ख़िराम-ए-नाज़-ए-गुलचीं देख कर बाद-ए-सबा ठहरे
बजाएँ चुटकियाँ ग़ुंचे तो बुलबुल की सदा ठहरे
कभी होंटों पे आ ठहरे कभी आँखों में आ ठहरे
अलग हो कर भला तुझ से दिल-ए-बेताब क्या ठहरे
न हम मिन्नत-कश-ए-साहिल न हम मरहून-ए-तूफ़ाँ हैं
हम अपनी कश्ती-ए-हस्ती के ख़ुद ही नाख़ुदा ठहरे
मुझे शाम-ओ-सहर का ख़ौफ़ क्या राह-ए-मोहब्बत में
शब-ए-ग़म सुब्ह-ए-हिज्राँ दोनों मेरे हम-नवा ठहरे
हज़ारों सर-फिरे सर आब-ए-सालन पर उठाते हैं
कभी तूफ़ान की ज़द में भी कोई बिलबिला ठहरे
हम अपने आँसुओं की बस यही मे'राज समझे हैं
तिरे दामन से हट कर क्यों कहीं ये क़ाफ़िला ठहरे
तिरे चेहरे के ख़त्त-ओ-ख़ाल कोई क्या समझ पाए
तिरे मद्द-ए-मुक़ाबिल जब न कोई आइना ठहरे
जो कल तक वाक़'ई मुनकिर थे आईन-ए-मोहब्बत के
वही उन की नज़र में आज पाबंद-ए-वफ़ा ठहरे
रह-ए-हक़ से हमें ये अहल-ए-बातिल क्या हटाएँगे
कहीं भी इम्तिहाँ ले लें कहीं भी कर्बला ठहरे
रहो दुनिया में इख़्लास-ओ-मुरव्वत का शजर बन कर
तुम्हारे साए में हर आश्ना ना-आश्ना ठहरे
'ज़ुहूर'-ए-ना-तवाँ मरने से घबराता नहीं लेकिन
अभी मसरूफ़-ए-याद-ए-दोस्त है कह दो क़ज़ा ठहरे
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