ख़ुद-आगही के लिए बहर-ए-बेकराँ में उतर
ख़ुद-आगही के लिए बहर-ए-बेकराँ में उतर
शनावरी का हुनर है तो जिस्म-ओ-जाँ में उतर
हर एक बात मुझे बे-यक़ीं सी लगती है
यक़ीन बन के मिरी ज़ात-ए-बे-गुमाँ में उतर
मैं धूप धूप घनी प्यास पी चुका हूँ बहुत
कभी तो अब्र-ए-रवाँ दश्त-ए-बे-कराँ में उतर
हर एक लम्हा गुरेज़ाँ सा लग रहा है मुझे
कभी तो शोला-ए-ख़ंजर ग़ुबार-ए-जाँ में उतर
निकल के यास की इन सर्द सर्द लहरों से
ऐ ज़िंदगी तू हर इक शोला-ए-जवाँ में उतर
चमक उठेंगे अँधेरों में अनगिनत सूरज
तू बर्क़ बन के मिरे क़ल्ब-ए-ना-तवाँ में उतर
तुझे भी कर्ब के दरिया में मैं डुबो दूँगा
जो हो सके तो मिरी चश्म-ए-ख़ूँ-फ़िशाँ में उतर
हर एक लम्हा है तेग़-ए-सितम तो क्या ग़म है
दराज़-दस्ती-ए-क़ातिल के इम्तिहाँ में उतर
फ़क़ीह-ए-शहर से क़त-ए-नज़र कभी तो 'नज़र'
तू मेरे अश्क की बे-हर्फ़ दास्ताँ में उतर
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