ख़ुदा शाहिद सुलूक-ए-नारवा से चोट लगती है
ख़ुदा शाहिद सुलूक-ए-नारवा से चोट लगती है
न मुँह फेरो कि दिल पर इस अदा से चोट लगती है
क़सम तुम को यूँही बातों के पत्थर मारते रहना
मिरे शीशा-सिफ़त दिल पर बला से चोट लगती है
मिरे मोहसिन मिरी ग़य्यूर फ़ितरत को न पहचाने
कि हर बढ़ते हुए दस्त-ए-अता से चोट लगती है
कुछ ऐसे हैं बिखर जाते हैं जो फूलों की ख़ुशबू से
कुछ ऐसे हैं जिन्हें बाद-ए-सबा से चोट लगती है
यक़ीनन फिर उन्हें मेआ'र जीने का नहीं आता
जिन्हें मेरी ख़ुदी मेरी अना से चोट लगती है
अज़ीज़ो ज़िंदगी की तल्ख़ियों से मैं तो बाज़ आया
रफ़ीक़ो और जीने की दुआ से चोट लगती है
बजाए दिल कोई पत्थर रखा है जिन के सीने में
उन्हें क्यों 'शाद' की आह-ओ-बुका से चोट लगती है
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